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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


छोटी कैची की एक ही लपलपी में !

आज शौचादि से निवृत्त हो हजामत बनाने बैठा, तो शीशे में देखा कि माथे के बाल बहुत ऊपर तक उड़ गये हैं, पर उड़े स्थान में जो दस-पाँच बाल बचे हैं. उन्हीं में एक बाल है सफ़ेद, जो बीच में तनकर कछ इस तरह खडा है कि जैसे कोई महत्त्वपूर्ण घोषणा कर रहा हो। मुझे जाने क्यों, वह भला नहीं लगा और उसका वहाँ यों उद्धत भाव से खड़ा रहना असह्य हो उठा।

मैंने अपनी छोटी कैची उठायी और एक ही लपलपी में उसे बुरक दिया। उसकी जड़ उखाड़ देना तो मेरे बस का न था, पर हाँ उस समय उसे मैंने अदृश्य अवश्य कर दिया। मैंने गौर से शीशे में देखा। अब वहाँ उसका नाम-निशान कुछ भी न था। भीतर एक सुख का स्पर्श-सा हुआ, पर तभी मुझे बहुत ज़ोर से हँसी आ गयी। बात यह हुई कि सुख के उस स्पर्श के साथ ही मेरे मन में आया कि यह सुख वैसा ही मूर्खतापूर्ण है, जैसा उन अभागे शासकों का होता है, जो दमन से दबे विद्रोहों को समाप्त मानकर सन्तुष्ट हुआ करते हैं। मैंने सोचा कि यह धवल केश मेरी ही खोपड़ी में छिपा इस समय गर्व से शायद कह रहा हो, “अजी क्या रखा है, कैंची में और क्या धरा है उस्तरे में, अगले सप्ताह देखिएगा, यहीं अपना झण्डा फहराता दिखाई दूँगा।"

इस घोषणा के साथ मुझे लगा कि धवल केश की यह फ़ाइल अब दफ़्तर दाखिल हुई, पर तभी कहीं से झाँक पड़ा एक प्रश्न-क्यों जी, जब सिर पर हज़ारों बालों का खड़ा रहना बुरा नहीं लगता, यही नहीं, यह भी कि अच्छा लगता है, तो उस बेचारे एक सफ़ेद बाल का ही खड़ा रहना तुम्हें ऐसा क्यों अखरा कि कैची लेकर दौड़ पड़े?

प्रश्न का तकाजा है कि उसका समाधान हो; नहीं तो वह फाँस-सा चुभता रहे। प्रश्न भी जीवन की एक कसौटी है। ‘सबसे भले हैं मूढ़, जिन्हें न व्यापे जगत रति’ यह तुलसीदास कह गये हैं। मेरी राय में मूढ़ वह, जिसके मन में कोई प्रश्न ही न उठे। जो जीवन को देखता है, जीवन के बीच से गुज़रता है, पर जीवन में दिलचस्पी नहीं लेता, जिसके मन में जीवन के सम्बन्ध में प्रश्न ही नहीं उठते, वह मूढ़ ही तो है।

फिर प्रश्नों की भी श्रेणी है कि किस तरह के प्रश्न मन में उठते हैं। रात में तारों को देखकर कवि के मन में भी प्रश्न उठते हैं, वैज्ञानिक के मन में भी और भक्त के मन में भी, पर तीनों के प्रश्न अलग-अलग हैं और उनके प्रश्न ही उन तीनों को परखने की कसौटियाँ हैं। साथ ही यह भी कि किसके मन में किस तरह के प्रश्न उठते हैं और वह किस तरह उनका समाधान पाता है।

इस सम्बन्ध में मेरा अपना तरीक़ा यह है कि मुझमें स्वयं प्रश्न उठते हैं और मैं स्वयं अपने में ही उनका समाधान खोजता हूँ। कई बार मुझे कई-कई वर्षों में अपने प्रश्न का उत्तर मिला है और कई बार तुरन्त, पर अपने से बाहर समाधान पाने की मुझमें प्यास कभी नहीं जागी।

बात यह कि मैं विद्वान् नहीं हूँ, जीवन-पथ का एक सतर्क यात्री हूँ; इसलिए मेरे प्रश्न तत्त्वज्ञान की, गहरी जिज्ञासा के तो हो ही नहीं सकते। उनका सम्बन्ध जीवन के साधारण उलट-फेरों के साथ ही होता है और तभी यह भी कि उनका उत्तर जीवन की गतिविधि में ही मिले।

आज का प्रश्न भी जीवन का एक स्वाभाविक प्रश्न है कि क्यों जी, जब सिर पर हज़ारों काले बालों का खड़ा रहना बुरा नहीं लगता, यही नहीं, यह भी कि अच्छा लगता है, तो उस बेचारे एक सफ़ेद बाल का ही खड़ा रहना तुम्हें ऐसा क्यों अखरा कि कैजी लेकर पिल पड़े?

प्रश्न फालतू हो, तो उसका टालतू उत्तर है मौन, पर फालतू न होकर सही दिशा में हो, तो उसका समाधान हो, नहीं तो कहा नहीं मैंने कि वह फाँस-सा चुभता रहेगा-चुभ ही रहा है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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